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मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए - अहसन मारहरवी कविता - Darsaal

मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए

मुतमइन अपने यक़ीं पर अगर इंसाँ हो जाए

सौ हिजाबों में जो पिन्हाँ है नुमायाँ हो जाए

इस तरह क़ुर्ब तिरा और भी आसाँ हो जाए

मेरा एक एक नफ़स काश रग-ए-जाँ हो जाए

वो कभी सेहन-ए-चमन में जो ख़िरामाँ हो जाए

ग़ुंचा बालीदा हो इतना कि गुलिस्ताँ हो जाए

इश्क़ का कोई नतीजा तो हो अच्छा कि बुरा

ज़ीस्त मुश्किल है तो मरना मिरा आसाँ हो जाए

जान ले नाज़ अगर मर्तबा-ए-इज्ज़-ओ-नियाज़

हुस्न सौ जान से ख़ुद इश्क़ का ख़्वाहाँ हो जाए

मेरे ही दम से है आबाद जुनूँ-ख़ाना-ए-इश्क़

मैं न हूँ क़ैद तो बर्बादी-ए-ज़िंदाँ हो जाए

है तिरे हुस्न का नज़्ज़ारा वो हैरत-अफ़ज़ा

देख ले चश्म-ए-तसव्वुर भी तो हैराँ हो जाए

दीद हो बात न हो आँख मिले दिल न मिले

एक दिन कोई तो पूरा मिरा अरमाँ हो जाए

मैं अगर अश्क-ए-निदामत के जवाहिर भर लूँ

तोशा-ए-हश्र मिरा गोशा-ए-दामाँ हो जाए

ले के दिल तर्क-ए-जफ़ा पर नहीं राज़ी तो मुझे

है ये मंज़ूर कि वो जान का ख़्वाहाँ हो जाए

अपनी महफ़िल में बिठा लो न सुनो कुछ न कहो

कम से कम एक दिन 'अहसन' पे ये एहसाँ हो जाए

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