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क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता - अहसन मारहरवी कविता - Darsaal

क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता

क्यूँ चुप हैं वो बे-बात समझ में नहीं आता

ये रंग-ए-मुलाक़ात समझ में नहीं आता

क्या दाद-ए-सुख़न हम तुम्हें दें हज़रत-ए-नासेह

है सौ की ये इक बात समझ में नहीं आता

शैख़ और भलाई से करे तज़्किरा तेरा

ऐ पीर-ए-ख़राबात समझ में नहीं आता

साया भी शब-ए-हिज्र की ज़ुल्मत में छुपा है

अब किस से करें बात समझ में नहीं आता

मुश्ताक़-ए-सितम आप हैं मुश्ताक़-ए-अजल हम

फिर क्यूँ ये रुका हात समझ में नहीं आता

रोका उन्हें जाने से सर-ए-शाम तो बोले

क्यूँ करते हो तुम रात समझ में नहीं आता

दिल एक है और इस के तलबगार हज़ारों

दें किस को ये सौग़ात समझ में नहीं आता

क्यूँ-कर कहूँ 'अहसन' कि अदू दोस्त है मेरा

हो नेक वो बद-ज़ात समझ में नहीं आता

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