कशिश-ए-हुस्न की ये अंजुमन-आराई है
कशिश-ए-हुस्न की ये अंजुमन-आराई है
सारी दुनिया तिरे कूचे में सिमट आई है
दर्द ने खोए हुए दिल की जगह पाई है
इक बला सर से गई एक बला आई है
जाँ निसारों को सहारा जो न जीने का मिला
कू-ए-क़ातिल में क़ज़ा खींच के ले आई है
मैं छुपाता हूँ ग़म-ए-इश्क़ तो बनता नहीं काम
और कहता हूँ तो गोया मिरी रुस्वाई है
जिगर ओ दिल में तराज़ू न हो क्यूँ नावक-ए-नाज़
इस को दोनों से बराबर की शनासाई है
दिल ये कहता है वहाँ जा के सँभल जाऊँगा
मैं ये कहता हूँ कि बद-बख़्त की मौत आई है
बन के नासेह वो ये कहते हैं मोहब्बत न करो
मुझ को मरने नहीं देते ये मसीहाई है
सब जिसे दाग़-ए-दिल ओ ज़ख़्म-ए-जिगर कहते हैं
वो मिरे नाख़ुन-ए-ग़म की चमन-आराई है
क्या है दुनिया में नुमूद और नुमाइश के सिवा
ज़िंदगी हम को तमाशे के लिए लाई है
इश्क़ रुस्वा-कुन-ए-आलम वो है 'अहसन' जिस से
नेक-नामों की भी बद-नामी ओ रुस्वाई है
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