ख़याल वो भी मिरे ज़ेहन के मकान में था
ख़याल वो भी मिरे ज़ेहन के मकान में था
जो आज तक न मकीन-ए-गुमाँ के ध्यान में था
वो देखता रहा हसरत से आसमाँ की तरफ़
छुपा हुआ वो परिंदा जो साएबान में था
ज़मीं पे कोई समाअ'त थी मुंतज़िर मेरी
सदा की शक्ल मुअ'ल्लक़ मैं आसमान में था
मिरा नसीब तो ख़ुशियों की भीड़ में अक्सर
चराग़ की तरह रौशन किसी दुकान में था
कभी मुझे भी तो करना पड़ेगा समझौता
बहुत दिनों से ये ख़दशा मिरे गुमान में था
तिरे सवाल का कैसे जवाब देता मैं
कि जब मैं खोया हुआ फ़िक्र की उड़ान में था
वही तो आग लगाता फिरा गुलिस्ताँ में
जो 'अहसन' अहल-ए-चमन में न बाग़बान में था
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