अस्र-ए-हाज़िर का जो इंसान नज़र आता है
अस्र-ए-हाज़िर का जो इंसान नज़र आता है
बस परेशान परेशान नज़र आता है
नफ़रत-ओ-बुग़्ज़ की मस्मूम हवा ऐसी चली
कूचा-ए-जानाँ भी वीरान नज़र आता है
मिरी हस्ती की इमारत भी गिरा सकता है
उस की आँखों में जो तूफ़ान नज़र आता है
ज़िंदा इंसान भी जलते हैं चिताओं में जहाँ
मुल्क ये ऐसा ही शमशान नज़र आता है
हादिसा कैसा ये गुज़रा है कि हर सू मुझ को
कर्ब-ओ-आज़ार का तूफ़ान नज़र आता है
इस क़दर बढ़ गई सफ़्फ़ाकी-ए-इंसाँ 'अहसन'
जिस को देखो वही हैवान नज़र आता है
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