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वो तो मुझ में ही निहाँ था मुझे मालूम न था - अहमद निसार कविता - Darsaal

वो तो मुझ में ही निहाँ था मुझे मालूम न था

वो तो मुझ में ही निहाँ था मुझे मालूम न था

ख़ून बन कर वो रवाँ था मुझे मालूम न था

इतने मजरूह थे जज़्बात हमारे जिस पर

चर्ख़ भी महव-ए-फ़ुग़ाँ था मुझे मालूम न था

प्यास शिद्दत की थी सहरा भी तड़प जाता था

इम्तिहाँ सर पे जवाँ था मुझे मालूम न था

पैर तो पैर यहाँ रूह के छाले निकले

दूर इतना भी मकाँ था मुझे मालूम न था

दिल भी होता है सुना करते थे हर सीने में

दर्द भी उस में निहाँ था मुझे मालूम न था

इश्क़ के बहर में ग़ोता तो लगाया लेकिन

बअ'द में उस के कहाँ था मुझे मालूम न था

फ़ित्ना-गर लूटने वाला सर-ए-बाज़ार यहाँ

इतना शीरीन-ज़बाँ था मुझे मालूम न था

हुस्न-ए-उल्फ़त को समाए हुए सीने में 'निसार'

दिल में इक दर्द जवाँ था मुझे मालूम न था

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