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तिरे पास रह कर सँवर जाऊँगा मैं - अहमद निसार कविता - Darsaal

तिरे पास रह कर सँवर जाऊँगा मैं

तिरे पास रह कर सँवर जाऊँगा मैं

जुदा हो के तुझ से बिखर जाऊँगा मैं

ज़रा सोचने दे मैं उठने से पहले

तिरे दर से उठ कर किधर जाऊँगा मैं

तिरे साथ जीने की उम्मीद लेकिन

तिरा साथ न हो तो मर जाऊँगा मैं

तिरे प्यार के साए में चंद लम्हे

ज़रा जी तो लूँ फिर गुज़र जाऊँगा मैं

सिमट कर ही रहने दे आँचल से तेरे

तू झुटलाए तो चश्म-ए-तर जाऊँगा मैं

न हरगिज़ चलूँगा किसी रहगुज़र से

तू रोके अगर तो ठहर जाऊँगा मैं

तिरे प्यार में ज़ख़्म खा खा के इक दिन

कि आग़ोश-ए-ग़म में उतर जाऊँगा मैं

'निसार' इश्क़ की आग में जल रहा हूँ

पता है कि इक दिन निखर जाऊँगा मैं

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