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मुस्तक़बिल - अहमक़ फफूँदवी कविता - Darsaal

मुस्तक़बिल

आने वाला है बहुत जल्द एक ऐसा अहद भी

दहर के हालात-ए-मौजूद फ़ना हो जाएँगे

और ही हो जाएँगे कुछ ये ज़मीन-ओ-आसमाँ

और ही कुछ रोज़-ओ-शब सुब्ह ओ मसा हो जाएँगे

रिफ़अतों पर हर तरफ़ छा जाएगा ज़ोफ़ ओ जुमूद

अर्श वाले माइल-ए-तहत-उस-सुरा हो जाएँगे

पस्तियाँ कर लेंगी तय सारे मक़ामात-ए-फ़राज़

ख़ाक के ज़र्रे सुरय्या तक रसा हो जाएँगे

अज़्मत ओ ज़िल्लत का सारा इम्तियाज़ उठ जाएगा

एक मंज़िल में शहंशाह ओ गदा हो जाएँगे

ख़ाक में मिल जाएगा सरमाया-दारों का ग़ुरूर

अहल-ए-नख़वत राही-ए-मुल्क-ए-फ़ना हो जाएँगे

फ़क्र-ओ-फ़ाक़ा की जगह ले लेंगे इत्मिनान ओ ऐश

मुफ़लिस ओ मज़दूर आज़ाद-ए-बला हो जाएँगे

सफ़्हा-ए-हस्ती से मिट जाएगा नाम-ए-ज़ुल्म-ओ-जब्र

अहल-ए-इस्तिब्दाद सब बे-दस्त-ओ-पा जाएँगे

हाकिम ओ महकूम में बाक़ी न होगा कोई फ़र्क़

एक अहल-ए-तख़्त ओ अहल-ए-बोरिया हो जाएँगे

मुंहदिम हो जाएगा दीवार-ए-ज़िंदाँ ख़ुद-ब-ख़ुद

अहल-ए-ज़िंदाँ क़ैद-ए-मेहनत से रहा हो जाएँगे

टूट जाएँगी क़फ़स की तीलियाँ इक आन में

चहचहों से बोस्ताँ रंगीं-नवा जो जाएँगे

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