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ख़िदमत-ए-वतन - अहमक़ फफूँदवी कविता - Darsaal

ख़िदमत-ए-वतन

वतन की ख़िदमत-ए-बे-लौस है हर शख़्स पर लाज़िम

यही वो काम है जो आदमी के काम आता है

लगा दी जाती है हुब्ब-ए-वतन में सर की बाज़ी भी

इक ऐसा भी वुफ़ूर-ए-जोश में हंगाम आता है

पलटने ही को है क़िस्मत तुम्हारी ऐ वतन वालो

तुम्हारे वास्ते ये अर्श से पैग़ाम आता है

ग़ुलामी दूर होती है तुम्हारी अब कोई दम में

हुकूमत और सरदारी का फिर हंगाम आता है

मुसीबत है ये बिल्कुल आरज़ी इस पर न घबराना

बस अब आता है अहद-ए-राहत-ओ-आराम आता है

वही फिर भी बज़्म होगी फिर वही रंगीनियाँ होंगी

वही पैमाना आता है वही फिर जाम आता है

तुम अपनी ना-तवानी से परेशाँ इस क़दर क्यूँ हो

कभी कमज़ोर होना भी बशर के काम आता है

मिटा देता है दम में नख़वत-ए-नमरूद इक मच्छर

कभी ऐसा भी दौर-ए-गर्दिश-ए-अय्याम आता है

ख़ुदा-रा इस निज़ा-ए-बाहमी को ख़त्म फ़रमा दो

ज़रा सोचो कि तुम पर किस क़दर इल्ज़ाम आता है

कभी छिड़ता है गर मज़कूर, क़ौमों की जहालत का

तो सब से पहले कानों में तुम्हारा नाम आता है

ये नुक्ता याद रक्खो उस को भूला कह नहीं सकते

जो वक़्त-ए-सुब्ह जा कर, घर पे वक़्त-ए-शाम आता है

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