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इंक़लाब - अहमक़ फफूँदवी कविता - Darsaal

इंक़लाब

ये कह रही है इशारों में गर्दिश-ए-गर्दूं

कि जल्द हम कोई सख़्त इंक़लाब देखेंगे

निज़ाम-ए-चर्ख़ में देखेंगे इक तग़य्युर-ए-ख़ास

सुकून-ए-दहर में इक इज़्तिराब देखेंगे

ख़ुदा ने चाहा तो अब जल्द ही वतन वाले

वतन में अपना मिशन कामयाब देखेंगे

दुआएँ की हैं जो अहल-ए-वतन ने रो रो कर

यक़ीं है जल्द उन्हें मुस्तजाब देखेंगे

ज़माना आने ही वाला है जब हम ऐ ज़ालिम

तुझे भी ख़्वार तुझे भी ख़राब देखेंगे

बहुत ही जल्द तिरे सर पे भी ख़ुदा की क़सम

ख़ुदा का क़हर ख़ुदा का इताब देखेंगे

तुझे भी देखेंगे मजबूर-ए-फ़ाक़ा-ओ-अफ़्लास

तुझे भी क़ैद-ए-ग़म-ओ-इज़्तिराब देखेंगे

तुझे भी अपनी तरह जल्द ही ब-फ़ज़्ल-ए-ख़ुदा

असीर-ए-सिलसिला-ए-पेच-ओ-ताब देखेंगे

तुझे भी अपनी तरह पा-ए-बंद-ए-नाला-ओ-आह

यूँ ही मजाल-ए-तबाह-ओ-ख़राब देखेंगे

रवाँ-दवाँ तुझे हिन्दोस्ताँ से सोए अदम

ब-क़ल्ब-ए-ज़ार ओ ब-चश्म-ए-पुर-आब देखेंगे

ये देखना है जो कुछ हम को उस में देर नहीं

बहुत ही जल्द बहुत ही शिताब देखेंगे

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