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फ़सान-ए-इबरत - अहमक़ फफूँदवी कविता - Darsaal

फ़सान-ए-इबरत

तअज्जुब में हूँ देख कर रंग-ए-आलम

इलाही ये क्या आ गया है ज़माना

न पहली सी वो मेहर-ओ-उल्फ़त की बातें

न अगला सा चाहत का वो कार-ख़ाना

जिधर देखिए बस तअस्सुब, जिहालत

जहाँ जाइए सिर्फ़ लड़ना लड़ाना

जो तालीम देता है जंग-ओ-जदल की

वो है इंतिहाई ख़िरद-मंद-ओ-दाना

जो तल्क़ीन करता है सुल्ह-ओ-सफ़ा की

वो है तीर-ए-ज़ज्र-ओ-जफ़ा का निशाना

न मालूम कब ये जिहालत मिटेगी

कब आएगा ऐश-ओ-ख़ुशी का ज़माना

मिलेंगे गले कब बहम मिलने वाले

बजाएगा इक़बाल कब शादियाना

बस अब छोड़ दो ये ज़िदें वर्ना यारो

जहाँ में है मुश्किल तुम्हारा ठिकाना

रहोगे यूँही पायमाल-ए-जफ़ा तुम

रहेगा यही रोज़ रोना-रुलाना

नतीजा ये होगा कि बन जाओगे तुम

फ़ना हो के इक इब्रतों का फ़साना

ये सब बरकतें अहल-ए-इंग्लैण्ड की हैं

करो जल्द उन्हें अब यहाँ से रवाना

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