न जाने कितने मराहिल के ब'अद पाया था
वो एक लम्हा जो तू ने गुज़ारने न दिया
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इक मैं हूँ कि लहरों की तरह चैन नहीं है
प्यार किया था तुम से मैं ने अब एहसान जताना क्या
फ़िक्र के सारे धागे टूटे ज़ेहन भी अब म'अज़ूर हुआ
नगर नगर में नई बस्तियाँ बसाई गईं
मिला जो धूप का सहरा बदन शजर न बना
जलती बुझती सी रहगुज़र जैसे
हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ
एहसास की मंज़िल से गुज़र जाएगा आख़िर
मुझ को मिरे वजूद से कोई निकाल दे
ज़रा सुकून भी सहरा के प्यार ने न दिया
है मेरा चेहरा सैकड़ों चेहरों का आईना