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हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ - अहमद ज़िया कविता - Darsaal

हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ

हर क़दम पर मेरे अरमानों का ख़ूँ

ज़िंदगी तेरा कहाँ तक साथ दूँ

आँधियों की ज़द में है मेरा वजूद

और मैं दीवार की तस्वीर हूँ

कौन हो तुम और कहाँ से आए हो

सोचता हूँ अपने साए से कहूँ

रंग की दुनिया से मैं उकता गया

फूल-रुत में ज़हर पी कर सो रहूँ

चाहता हूँ तुम को ख़ुश्बू की तरह

अब कि मैं आवाज़ ही आवाज़ हूँ

अब कोई मेरा नहीं मेरे सिवा

आज अपने-आप दिल को तोड़ लूँ

मैं कि पैग़म्बर नहीं 'अहमद-ज़िया'

कौन सा पैग़ाम इस दुनिया को दूँ

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