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फ़िक्र के सारे धागे टूटे ज़ेहन भी अब म'अज़ूर हुआ - अहमद ज़िया कविता - Darsaal

फ़िक्र के सारे धागे टूटे ज़ेहन भी अब म'अज़ूर हुआ

फ़िक्र के सारे धागे टूटे ज़ेहन भी अब म'अज़ूर हुआ

अब के बहार ये कैसी आई कैसा ये दस्तूर हुआ

कल-पुर्ज़ों का रूह-ए-रवाँ ये और वो सरमाए की जोंक

लेकिन उस की नज़रों में ये धरती का नासूर हुआ

दिन की सफ़ेदी तेरी नज़र में रात की काली चादर है

रात का ख़ूनी अँधियारा भी तेरी नज़र में नूर हुआ

जब से देखा है खेतों में मैं ने ज़ालिम धूप का रूप

तब से तेरी ज़ुल्फ़ का साया दूर बहुत ही दूर हुआ

ज़ुल्म को उस ने ज़ुल्म कहा है जब्र को उस ने जब्र कहा

यानी 'ज़िया' अब 'ज़िया' नहीं है वक़्त का वो मंसूर हुआ

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