जो रेज़ा रेज़ा नहीं दिल उसे नहीं कहते
कहें न आईना उस को जो पारा-पारा नहीं
Wasi Shah
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जंगल का सन्नाटा मेरा दुश्मन है
यूँ ज़माने में मिरा जिस्म बिखर जाएगा
मैं मकीं हूँ न मकाँ शहर-ए-मोहब्बत का 'ज़फ़र'
दिन हुआ कट कर गिरा मैं रौशनी की धार से
ये तेरा ख़याल है कि तू है
उम्र का आख़िरी दिन
और क्या मेरे लिए अरसा-ए-महशर होगा
जब तक जुनूँ जुनूँ है ग़म-ए-आगही भी है
क्या पता किस जुर्म की किस को सज़ा देता हूँ मैं
अंग अंग से रंग रंग के फूल बरसते देखे कौन
वो फूल जो मुस्कुरा रहा है
फूल की रंगत मैं ने देखी दर्द की रंगत देखे कौन