पाताल ज़मीन आसमान
कहानी के सारे परिंदे
बहुत दूर शायद उफ़ुक़ में
कहीं मुंजमिद हो गए हैं
शजर ज़र्द पत्तों की तस्वीर बन कर
अलामत की तहरीर बन कर
बिखरने लगा है
किसी झील के आईने में वो मह-वश
बदन के किसी ज़ाविए से निकलने की ख़्वाहिश में
पलकें उठाए हुए देखती रह गई है
परिंदों की मानिंद मैं भी यहाँ था
मगर अब नहीं हूँ
कि होने की ख़्वाहिश ने शायद मुझे भी
ख़ला में मुअल्लक़ सितारों की मानिंद गुम कर दिया है
न अब मौसमों के सितम हैं
न अब रात की सर्द आवेज़िशों में ठिठुरने की राहत ही आवाज़ देते हैं मुझ को
न पत्थर की मानिंद हाथों में सूरज
रग-ओ-पय में मेरे लहू की हरारत बनेगा
ज़माना कोई शोबदा-गर
मुझे दूर ही दूर ले जा रहा है
कि मैं नीम-वा ग़ार की सीढ़ियों में उतरने लगा हूँ
चराग़-ए-तिलिस्मात मिलने से पहले
ज़मीन ने मुझे अपनी आग़ोश में ले लिया है
दुआ बद-दुआ बन गई है
कि हर लफ़्ज़ के दाएरे से लहू रिस रहा है
किसी सानेहे ने ज़मीं से फ़लक की तरफ़ जाते जाते
मुझे भी सितारों में गुम कर दिया है
कि मैं अपने साए की दहलीज़ पर
लज़्ज़त-ए-आश्नाई में खोया हुआ अजनबी हूँ
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