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हैरत-ख़ाना-ए-इमरोज़ - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

हैरत-ख़ाना-ए-इमरोज़

अब कोई फूल मिरे दर्द के दरिया में नहीं

अब कोई ज़ख़्म मिरे ज़ेहन के सहरा में नहीं

न किसी जन्नत-ए-अर्ज़ी का हवाला मुझ से

न जहन्नम का दहकता हुआ शोला कोई

मेरे एहसास के पर्दे पे रवाँ रहता है

मैं कहाँ हूँ? मुझे मालूम नहीं!!

बोलते लफ़्ज़ भी ख़ामोश तमन्नाई हैं

जागते ख़्वाब की ताबीर यही है शायद

मेरी तक़दीर यही है शायद

मैं जिसे देखना चाहूँ मुझे अंधा कह दे!

कौन हूँ मैं मुझे ऐ दीदा-ए-बीना कह दे!

ज़िंदगी क्यूँ किसी मफ़्हूम से आरी ही रही

धूप में जिस्म सुलगते ही चले जाते हैं

मौत का ख़ौफ़ सिमटता है बिखर जाता है

फ़ाख़्ता जैसे किसी पेड़ की शाख़ों में छुपी बैठी हो

साँस सीने में किसी तीर की मानिंद उतर जाती है

मुँह छुपाए हुए सूरज भी फ़ना की तस्वीर

प्यास बन कर किसी दरिया में उतर जाता है

आस ने यास के महताब से ख़ुशबू माँगी

चेहर-ए-गुल पे किसी क़तरा-ए-शबनम की दुआ उतरी है

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