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वो फूल जो मुस्कुरा रहा है - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

वो फूल जो मुस्कुरा रहा है

वो फूल जो मुस्कुरा रहा है

शायद मिरा दिल जला रहा है

छुप कर कोई देखता है मुझ को

आँखों में मगर समा रहा है

मैं चाँद के साथ चल रहा हूँ

वो मेरी हँसी उड़ा रहा है

शायद किसी दौर में वफ़ा थी

ये दौर तो बेवफ़ा रहा है

सौ रंग हैं ज़िंदगी के लेकिन

इंसान फ़रेब खा रहा है

तस्वीर बने तो मुझ से कैसे

हर नक़्श मुझे मिटा रहा है

जो लम्हा पयाम है फ़ना का

चुप-चाप क़रीब आ रहा है

तूफ़ाँ ने भी आँख खोल दी है

साहिल भी नज़र बचा रहा है

फ़नकार कहूँ उसे तो कैसे

तख़्लीक़ को जो मिटा रहा है

तक़दीर मिटा चुकी थी जिस को

तदबीर का राज़ पा रहा है

आवाज़ से आग लग रही है

मुतरिब है कि गीत गा रहा है

एहसास-ए-शिकस्त-ओ-कामरानी

आईने कई दिखा रहा है

वो ख़ाक-नशीं 'ज़फ़र' है यारो

जो सू-ए-फ़लक भी जा रहा है

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