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उस ने तोड़ा जहाँ कोई पैमाँ - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

उस ने तोड़ा जहाँ कोई पैमाँ

उस ने तोड़ा जहाँ कोई पैमाँ

मरहले और हो गए आसाँ

मीर है कोई कोई है सुल्ताँ

सोचता हूँ कहाँ गया इंसाँ

आँधियों में जला रहे थे चराग़

हाए वो लोग बे-सर-ओ-सामाँ

फ़लसफ़ी फ़लसफ़ों में डूब गए

आदमी का लहू रहा अर्ज़ां

अब्र बन कर बरस ही जाएगा

खेत से जब उठा ग़म-ए-दहक़ाँ

शो'ला-ए-गुल है ज़ख़्म-ए-दिल की तरह

ये चमन में बहार है कि ख़िज़ाँ

सीना-ए-संग में भी फूल खिले

ग़म जहाँ भी हुआ ग़म-ए-पिन्हाँ

दिल की आज़ुर्दगी न पूछ 'ज़फ़र'

बात मेरे लिए है संग-ए-गिराँ

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