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तरस रहा हूँ क़रार-ए-दिल-ओ-नज़र के लिए - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

तरस रहा हूँ क़रार-ए-दिल-ओ-नज़र के लिए

तरस रहा हूँ क़रार-ए-दिल-ओ-नज़र के लिए

सुकूत-ए-शब में दुआ जिस तरह सहर के लिए

मैं ख़ाक-ए-राह-गुज़र हूँ कि मसनद-ए-गुल हूँ

इक इज़्तिराब-ए-मुसलसल है उम्र भर के लिए

शजर कि जिन से उदासी टपकती रहती है

ये संग-ए-मील हैं शायद मिरी नज़र के लिए

जमाल-ए-दोस्त को मशअ'ल बना लिया मैं ने

वफ़ा कि रख़्त-ए-सफ़र है मिरे सफ़र के लिए

तिरे ख़याल का ऐवाँ लहू से रौशन है

मिरी नज़र का उजाला है रहगुज़र के लिए

शिकस्त जिस से ज़माना लरज़ता रहता है

वही नवेद-ए-मसर्रत भी है 'ज़फ़र' के लिए

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