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तन्हाई ने पर फैलाए रात ने अपनी ज़ुल्फ़ें - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

तन्हाई ने पर फैलाए रात ने अपनी ज़ुल्फ़ें

तन्हाई ने पर फैलाए रात ने अपनी ज़ुल्फ़ें

पलकों पर हम तारे ले कर चाँद का रस्ता देखें

ये दुनिया है इस दुनिया का रंग बदलता जाए

उस पर्बत से पाँव फिस्ले जिस पर्बत को छू लें

कैसे प्यास बुझाते दरिया रेत का दरिया निकला

लहर लहर में मौज छुपी थी धोके में थी आँखें

जिस को मन का मीत बनाया आख़िर दुश्मन ठहरा

किस किस को हम मीत बनाएँ किस किस से हम उलझें

लोहा सोना बन सकता है पत्थर हीरा मोती

सोच समझ की बात है सारी कुछ सोचें कुछ समझें

अपना दर्द भुला दें ऐ दिल उस के दर्द की ख़ातिर

अपने घाव याद न आएँ चाँद का घाव देखें

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