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मैं यूँ तो नहीं है कि मोहब्बत में नहीं था - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

मैं यूँ तो नहीं है कि मोहब्बत में नहीं था

मैं यूँ तो नहीं है कि मोहब्बत में नहीं था

अलबत्ता कभी इतनी मुसीबत में नहीं था

अस्बाब तो पैदा भी हुए थे मगर अब के

उस शोख़ से मिलना मिरी क़िस्मत में नहीं था

तय मैं ने किया दिन का सफ़र जिस की हवस में

देखा तो वही रात की दावत में नहीं था

इक लहर थी ग़ाएब थी जो तूफ़ान-ए-हवा से

इक लफ़्ज़ था जो ख़त की इबारत में नहीं था

कैफ़ियतें सारी थीं फ़क़त हिज्र तक उस के

मैं सामने आ कर किसी हालत में नहीं था

क्या रंग थे लहराए थे जो राह-रवी में

क्या नूर था जो शम-ए-हिदायत में नहीं था

लग़्ज़िश हुई कुछ मुझ से भी तुग़्यान-ए-तलब में

कुछ वो भी 'ज़फ़र' अपनी तबीअत में नहीं था

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