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क्या पता किस जुर्म की किस को सज़ा देता हूँ मैं - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

क्या पता किस जुर्म की किस को सज़ा देता हूँ मैं

क्या पता किस जुर्म की किस को सज़ा देता हूँ मैं

रंग सा इक बाँधता हूँ फिर भुला देता हूँ मैं

अपने आगे अब तो मैं ख़ुद भी ठहर सकता नहीं

सामना होते ही चुटकी में उड़ा देता हूँ मैं

मो'जिज़ा अगला तो अब शायद पुराना हो चला

देखना अब के कोई चक्कर नया देता हूँ मैं

मुझ से आगे भी निकल जाना बहुत मुश्किल नहीं

आज-कल आहिस्ता-रौ हूँ रास्ता देता हूँ मैं

शोर सा उठता है और उठते ही दब जाता है अब

हर्फ़ सा लिखने से पहले ही मिटा देता हूँ मैं

ताकि मेरी सुल्ह-जूई को लगे कुछ भाव भी

हर नए फ़ित्ने को दर-पर्दा हवा देता हूँ मैं

बात भी सुनता नहीं हूँ वस्ल में दिल की 'ज़फ़र'

ऐसे ख़र-मस्तों को महफ़िल से उठा देता हूँ मैं

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