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किसी परिंदे की वापसी का सफ़र मिरी ख़ाक में मिलेगा - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

किसी परिंदे की वापसी का सफ़र मिरी ख़ाक में मिलेगा

किसी परिंदे की वापसी का सफ़र मिरी ख़ाक में मिलेगा

मैं चुप रहूँगा शजर की सूरत शजर मिरी ख़ाक में मिलेगा

उदास आँखें सुलगते चेहरों की मुझ को आवाज़ दे रही हैं

कभी जो आबाद रह चुका है वो घर मिरी ख़ाक में मिलेगा

लहू की बारिश में ज़र्द फूलों की पत्तियों से लिखा गया हूँ

मैं लफ़्ज़ का ज़ाइक़ा ज़बाँ पर असर मिरी ख़ाक में मिलेगा

दयार-ए-शब के भटकते राही शिकार-ए-तश्कीक-ओ-कम-निगाही

अलाव रौशन कहीं जो कर दे शरर मिरी ख़ाक में मिलेगा

अज़ल से सूरज अबद में तलाश जिस को करता हुआ गया है

सदफ़ ज़मीं है तो ज़िंदगी का गुहर मिरी ख़ाक में मिलेगा

वो बस्तियाँ जो तबाहियों में नुमू की तस्वीर बन गई हैं

वजूद जिन का कहीं नहीं है मगर मिरी ख़ाक में मिलेगा

मैं चश्म-ए-पुर-नम की मिशअलों से चराग़-ए-फ़र्दा जला रहा हूँ

कि नक़्श-ए-इरफ़ान-ओ-आगही भी 'ज़फ़र' मिरी ख़ाक में मिलेगा

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