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दिन हुआ कट कर गिरा मैं रौशनी की धार से - अहमद ज़फ़र कविता - Darsaal

दिन हुआ कट कर गिरा मैं रौशनी की धार से

दिन हुआ कट कर गिरा मैं रौशनी की धार से

ख़ल्क़ ने देखे लहू में रात के अनवार से

उड़ गया काला कबूतर मुड़ गई ख़्वाबों की रौ

साया-ए-दीवार ने क्या कह दिया दीवार से

जब से दिल अंधा हुआ आँखें खुली रखता हूँ मैं

उस पे मरता भी हूँ ग़ाफ़िल भी नहीं घर-बार से

ख़ाक पर उड़ती बिखरती पुर्ज़ा पुर्ज़ा आरज़ू

याद है ये कुछ हवा की आख़िरी यलग़ार से

अब तो बारिश हो ही जानी चाहिए उस ने कहा

ताकि बोझ उतरे पुरानी गर्द का अश्जार से

इश्क़ तो अब शे'र कहने का बहाना रह गया

हर्फ़ को रखता हूँ रौशन शो'ला-ए-अफ़्कार से

शहर के नक़्शे से मैं मिट भी चुका कब का 'ज़फ़र'

चार-सू लेकिन चमकते हैं मिरे आसार से

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