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गहराइयों से मुझ को किसी ने निकाल के - अहमद वसी कविता - Darsaal

गहराइयों से मुझ को किसी ने निकाल के

गहराइयों से मुझ को किसी ने निकाल के

फेंका है आसमान की जानिब उछाल के

मैं ने ज़मीं को नाप लिया आसमान तक

नज़रों में फ़ासले हैं उरूज-ओ-ज़वाल के

चेहरे हर इक से पूछ रहे हैं कोई जवाब

शो'लों पे कुछ निशान लगे हैं सवाल के

लोग में अब वो चर्ब-ज़बानी नहीं रही

या हिज्र में उदास हैं क़िस्से विसाल के

हर शख़्स से मिला हूँ बड़ी एहतियात से

हर शख़्सिय्यत को मैं ने पढ़ा है सँभाल के

अब शाइ'री से सिर्फ़ है लफ़्ज़ों का वास्ता

रिश्ते तमाम हो गए फ़िक्र-ओ-ख़याल के

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