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तसव्वुर को जगा रक्खा है उस ने - अहमद शनास कविता - Darsaal

तसव्वुर को जगा रक्खा है उस ने

तसव्वुर को जगा रक्खा है उस ने

दरीचा नीम वा रक्खा है उस ने

ज़रा सा फूल मेरे बाग़ में है

बहुत कुछ मावरा रक्खा है उस ने

बिना देखे गवाही माँगता है

सवाल अपना जुदा रक्खा है उस ने

मिरे होने से ख़ुद मेरा तअल्लुक़

ब-रंग-ए-इंतिहा रक्खा है उस ने

मिटा देता है हर तस्वीर मेरी

मुझे अपना बना रक्खा है उस ने

हमारी प्यास क़तरों में लिखी है

मगर दरिया बहा रक्खा है उस ने

ये सूरज चाँद तारों का ज़माना

बस इक लम्हा जला रक्खा है उस ने

बनावट बरमला फूलों की सूरत

कि ख़ुशबू को छुपा रक्खा है उस ने

खड़ी है राह रोके ख़ुद-फ़रेबी

मुझे वापस बुला रक्खा है उस ने

हवा का है न पानी का करिश्मा

नफ़स को ख़ुद जला रक्खा है उस ने

मुझे बे-नाम कर देता है 'अहमद'

कि नाम अपना ख़ुदा रक्खा है उस ने

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