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फूलों में एक रंग है आँखों के नीर का - अहमद शनास कविता - Darsaal

फूलों में एक रंग है आँखों के नीर का

फूलों में एक रंग है आँखों के नीर का

मंज़र तमाम-तर है ये फ़स्ल-ए-ज़मीर का

रिश्ता वो क्या हुआ मिरी आँखों से नीर का

मुद्दत हुई है हादसा देखे ज़मीर का

पानी उतर गया तो ज़मीं संगलाख़ थी

तीखा सा हर सवाल था राँझे से हीर का

तेरी अज़ाँ के साथ मैं उठता हूँ पौ फटे

सर में लिए हुए कोई सज्दा असीर का

देखा न दोस्तों ने इमारत के उस तरफ़

पूछा कभी न हाल किसी ने फ़क़ीर का

आईना गिर पड़ा था मिरे हाथ से कभी

फिर याद हादसा नहीं कोई ज़मीर का

सहरा-ए-जिस्म रूह के अंदर उतर गया

अब क्या दिखाए मोजज़ा इंसाँ ज़मीर का

आँसू की एक बूँद को आँखें तरस गईं

इस धूप में झुलस गया दोहा कबीर का

आधा फ़लक के पास था आधा ज़मीन पर

मैं ना-तमाम ख़्वाब था बदर-ए-मुनीर का

पक्के हुरूफ़ गर्द की सूरत बिखर गए

सीने में घाव रह गया कच्ची लकीर का

होती रहेंगी बारिशें 'अहमद' विसाल की

ख़ाली रहेगा जाम हमेशा फ़क़ीर का

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