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जिस्म के बयाबाँ में दर्द की दुआ माँगें - अहमद शनास कविता - Darsaal

जिस्म के बयाबाँ में दर्द की दुआ माँगें

जिस्म के बयाबाँ में दर्द की दुआ माँगें

फिर किसी मुसाफ़िर से रौशनी ज़रा माँगें

खो गए किताबों में तितलियों के बाल-ओ-पर

सोच में हैं अब बच्चे क्या छुपाएँ क्या माँगें

ज़ा'फ़रानी खेतों में अब मकान उगते हैं

किस तरह ज़मीनों से दिल का राब्ता माँगें

हम भी हो गए शामिल मसनूई तिजारत में

हम कि चेहरा-सामाँ थे अब के आइना माँगें

वर्ना इल्म नामों का उठ न जाए धरती से

आदमी फले-फूले आओ ये दुआ माँगें

इस से पेशतर कि ये रात मूँद ले आँखें

नन्हे-मुन्ने जुगनू से रौशनी ज़रा माँगें

वो सदाएँ देता है आख़िरी जज़ीरे से

और हम निगाहों का हुस्न-ए-इब्तिदा माँगें

किस के सामने रखिए खोल कर रज़ा अपनी

और किस से जादू का बोलता दिया माँगें

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