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इमरोज़ की कश्ती को डुबोने के लिए हूँ - अहमद शनास कविता - Darsaal

इमरोज़ की कश्ती को डुबोने के लिए हूँ

इमरोज़ की कश्ती को डुबोने के लिए हूँ

कल और किसी रंग में होने के लिए हूँ

तू भी है फ़क़त अपनी शहादत का तलबगार

मैं भी तो इसी दर्द में रोने के लिए हूँ

जीने का तक़ाज़ा मुझे मरने नहीं देता

मर कर भी समझता हूँ कि होने के लिए हूँ

हाथों में मिरे चाँद भी लगता है खिलौना

ख़्वाबों में फ़लक रंग समोने के लिए हूँ

हर बार ये शीशे का बदन टूट गया है

हर बार नए एक खिलौने के लिए हूँ

परदेस की रातों में बहुत जाग चुका मैं

अब घर का सुकूँ ओढ़ के सोने के लिए हूँ

सीने में कोई ज़ख़्म कि खुलने के लिए है

आँखों में कोई अश्क कि रोने के लिए हूँ

सादा सी कोई बात नहीं भूक शिकम की

ईमान भी रोटी में समोने के लिए हूँ

वो दश्त-ओ-बयाबान में इज़हार का ख़्वाहाँ

मैं अपने चमन-ज़ार में रोने के लिए हूँ

ग़ारों का सफ़र है कि मुकम्मल नहीं होता

मैं अपनी ख़बर आप ही ढोने के लिए हूँ

सूरज को निकलने में ज़रा देर है 'अहमद'

फिर ज़ात का हर रंग मैं खोने के लिए हूँ

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