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वो मर गया सदा-ए-नौहा-गर में कितनी देर है - अहमद शहरयार कविता - Darsaal

वो मर गया सदा-ए-नौहा-गर में कितनी देर है

वो मर गया सदा-ए-नौहा-गर में कितनी देर है

कि सानेहा तो हो चुका ख़बर में कितनी देर है

हमारे शहर की रिवायतों में एक ये भी था

दुआ से क़ब्ल पूछना असर में कितनी देर है

मुक़ाबला है रक़्स का बगूला कब का आ चुका

मगर पता नहीं अभी भँवर में कितनी देर है

ख़दा-ए-महर आसमाँ उजाल दे कि यूँ न हो

दिए को पूछना पड़े सहर में कितनी देर है

हज़ार कूफ़ा ओ हलब गुज़र रहे हैं रोज़ ओ शब

मैं जिस तरफ़ चला हूँ उस नगर में कितनी देर है

ख़िरद की तेज़ धूप में जुनूँ का साएबाँ खिला

मैं बीज बो चुका सो अब शजर में कितनी देर है

अभी हमें गुज़ारनी है एक उम्र-ए-मुख़्तसर

मगर हमारी उम्र-ए-मुख़्तसर में कितनी देर है

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