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गुमान के लिए नहीं यक़ीन के लिए नहीं - अहमद शहरयार कविता - Darsaal

गुमान के लिए नहीं यक़ीन के लिए नहीं

गुमान के लिए नहीं यक़ीन के लिए नहीं

अजीब रिज़्क़-ए-ख़्वाब है ज़मीन के लिए नहीं

ख़याल जो क़दम-कुशा है तेरे ला-शुऊर में

ग़ज़ाल है मगर सुबुकतगीन के लिए नहीं

हवाएँ गोश-बर-सदा हैं किस के बाब में ख़मोश

नहीं दिए की आया-ए-मुबीन के लिए नहीं

उसे छुपाओ कुश्तगाँ के दिल में राज़ की तरह

ये तेग़-ए-आबदार आस्तीन के लिए नहीं

मैं एक बूढ़े फ़लसफ़ी के ख़्वाब का अमीन हूँ

मिरे लबों की साख़्त अंगबीन के लिए नहीं

कमंद को कमान को अभी से तह न कीजिए

कि ये शिकार के लिए हैं ज़ीन के लिए नहीं

जो तीर उड़ चला है वो मिरे लिए है 'शहरयार'

यसार के लिए नहीं यमीन के लिए नहीं

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