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अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए - अहमद शहरयार कविता - Darsaal

अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए

अश्क भेजें मौज उभारें अब्र जारी कीजिए

मेहरबाँ सैल-ए-बला की आबयारी कीजिए

ऐ चराग़-ए-ताक़-ए-जानाँ ऐ हवा-ए-कू-ए-दोस्त

अपनी कैफ़िय्यत ज़रा हम पर भी तारी कीजिए

शाम-ए-हिज्राँ में सितारों को न ठहराएँ शरीक

आईना-ख़ाने में आ कर ख़ुद-शुमारी कीजिए

अश्क-बारी सीना-चाकी दिल-ख़राशी हो चुकी

लीजे साहिब इश्क़ का फ़रमान जारी कीजिए

होंट कहते हैं बहा दीजे लहू अशआर में

ज़ुल्फ़ कहती है मियाँ तरकीब भारी कीजिए

देखिए माह ओ सितारा घूमिए अर्ज़ ओ समा

चलिए बाहर बाद-ए-ख़ुद-सर की सवारी कीजिए

इश्क़ का अगला पड़ाव मैं हूँ मैं दुनिया-परस्त

अल-मदद ऐ क़ैस ऐ फ़रहाद यारी कीजिए

यूँ तो मलने से रही ये सल्तनत सो शहरयार

पाँव पड़ कर रोइए मिन्नत-गुज़ारी कीजिए

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