ये गुत्थी कब से मैं सुलझा रहा हूँ
जहाँ से मैं हूँ या मुझ से जहाँ है
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दुनिया सभी बातिल की तलबगार लगे है
ले के फिर ज़ख़्मों की सौग़ात बहारो आओ
सारा आलम धुआँ धुआँ क्यूँ है
जुनूँ की रस्म ज़माने में आम हो न सकी
जब तक ग़ुबार-ए-राह मिरा हम-सफ़र रहा
ग़म के बादल हैं ये ढल जाएँगे रफ़्ता रफ़्ता
दिल की ख़्वाहिश बढ़ते बढ़ते तूफ़ाँ होती जाती है
शम्अ की तरह से जलना सीख औरों के लिए
दुनिया ने जो ज़ख़्म दिए थे भर दिए तेरी यादों ने
साग़र क्यूँ ख़ाली है मिरा ऐ साक़ी तिरे मयख़ाने में