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दुनिया सभी बातिल की तलबगार लगे है - अहमद शाहिद ख़ाँ कविता - Darsaal

दुनिया सभी बातिल की तलबगार लगे है

दुनिया सभी बातिल की तलबगार लगे है

जिस रूह को देखो वही बीमार लगे है

जब भूक से मर जाता है दोराहे पे कोई

बस्ती का हर इक शख़्स गुनहगार लगे है

शायद नई तहज़ीब की मेराज यही है

हक़-गो ही ज़माने में ख़ता-कार लगे है

वो तेरी वफ़ा की हो कि दुनिया की जफ़ा की

मत छेड़ कोई बात कि तलवार लगे है

क्या ज़र्फ़ है हर ज़ुल्म पे ख़ामोश है दुनिया

इस दौर का इंसान पुर-असरार लगे है

जिस ने कभी दरिया का तलातुम नहीं देखा

साहिल भी उसे दूर से मझंदार लगे है

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