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और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है - अहमद सग़ीर सिद्दीक़ी कविता - Darsaal

और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है

और सी धूप घटा और सी रक्खी हुई है

हम ने इस घर की फ़ज़ा और सी रक्खी हुई है

कुछ मरज़ और सा हम ने भी लगाया हुआ है

और उस ने भी दवा और सी रक्खी हुई है

इस क़दर शोर में बस एक हमीं हैं ख़ामोश

हम ने होंटों पे सदा और सी रक्खी हुई है

वो दुआ और है जो माँग रहे हैं कि अभी

दिल में इक और दुआ और सी रक्खी हुई है

क़िस्सा अपना भी पुराना है सिवाए इस के

बस ज़रा तर्ज़-ए-अदा और सी रक्खी हुई है

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