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शब ढले गुम्बद-ए-असरार में आ जाता है - अहमद रिज़वान कविता - Darsaal

शब ढले गुम्बद-ए-असरार में आ जाता है

शब ढले गुम्बद-ए-असरार में आ जाता है

एक साया दर-ओ-दीवार में आ जाता है

मैं अभी एक हवाले से उसे देखता हूँ

दफ़अ'तन वो नए किरदार में आ जाता है

यूँ शब-ए-हिज्र शब-ए-वस्ल में ढल जाती है

कोई मुझ सा मिरी गुफ़्तार में आ जाता है

मुझ सा दीवाना कोई है जो तिरे नाम के साथ

रक़्स करता हुआ बाज़ार में आ जाता है

जब वो करता है नए ढब से मिरी बात को रद्द

लुत्फ़ कुछ और भी गुफ़्तार में आ जाता है

देखना उस को भी पड़ता है मियाँ दुनिया में

सामने जो यूँही बे-कार में आ जाता है

एक दिन क़ैस से जा मिलता है वहशत के तुफ़ैल

जो भी इस दश्त-ए-सुख़न-ज़ार में आ जाता है

मैं कभी ख़ुद को अगर ढूँढना चाहूँ 'अहमद'

दूसरा मा'रिज़-ए-इज़हार में आ जाता है

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