कुछ इस तरह से लुटी है मता-ए-दीदा-ओ-दिल
कि अब किसी से भी ज़िक्र-ए-वफ़ा नहीं करते
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शिकस्त-ए-अहद-ए-सितम पर यक़ीन रखते हैं
ब वस्फ़-ए-शौक़ भी दिल का कहा नहीं करते
मैं नुक्ता-चीं नहीं हूँ मगर ये बताइए
फ़र्त-ए-ग़म-ए-हवादिस-ए-दौराँ के बावजूद
क्या क्या मोहब्बतों के ज़माने बदल गए
ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-दौराँ
ब-वस्फ़-ए-शौक़ भी दिल का कहा नहीं करते
हम ही बदलेंगे रह-ओ-रस्म-ए-गुलिस्ताँ यारो
ज़िंदगी ग़म की आँच सह कोई