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क्या क्या मोहब्बतों के ज़माने बदल गए - अहमद रियाज़ कविता - Darsaal

क्या क्या मोहब्बतों के ज़माने बदल गए

क्या क्या मोहब्बतों के ज़माने बदल गए

अब तुम कभी मिले हो तो आँसू निकल गए

फ़र्त-ए-ग़म हवादिस-ए-दौराँ के बावजूद

जब भी तिरे दयार से गुज़रे मचल गए

मैं नुक्ता-चीं नहीं हूँ मगर ये बताइए

वो कौन थे जो हँस के गुलों को मसल गए

कुछ दस्त-ए-गुल-फ़रोश में सँवला के रह गए

कुछ बाग़बाँ की बर्क़-नवाज़ी से जल गए

तुम ने हमें फ़रेब-ए-क़यामत दिया तो है

लेकिन कभी हुआ है कि तूफ़ान टल गए

इक वो भी थे जो बह गए मौजों के साथ साथ

इक हम भी हैं जो खा के थपेड़े सँभल गए

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