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ब वस्फ़-ए-शौक़ भी दिल का कहा नहीं करते - अहमद रियाज़ कविता - Darsaal

ब वस्फ़-ए-शौक़ भी दिल का कहा नहीं करते

ब वस्फ़-ए-शौक़ भी दिल का कहा नहीं करते

फ़रोग़-ए-क़ामत-ओ-रुख़ की सना नहीं करते

शिकस्त-ए-अहद-ए-सितम पर यक़ीन रखते हैं

हम इंतिहा-ए-सितम का गिला नहीं करते

कुछ इस तरह से लुटी है मता-ए-दीदा-ओ-दिल

कि अब किसी से भी ज़िक्र-ए-वफ़ा नहीं करते

इसी लिए हैं सज़ा-वार जौर-ए-बर्क़-ए-सितम

कि हक़्क़-ए-ख़िदमत-ए-गुलचीं अदा नहीं करते

मज़ाक़-ए-कोहकनी हो कि दश्त-पैमाई

जिन्हें तुम्हारी तलब हो वो क्या नहीं करते

वो आश्ना-ए-ग़म-ए-कायनात क्या होंगे

जो ख़ुद को आप का दर्द-आश्ना नहीं करते

ग़म-ए-हबीब ग़म-ए-ज़िंदगी ग़म-ए-दौराँ

किसी मक़ाम पे हम जी बुरा नहीं करते

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