मिरे हबीब मिरी मुस्कुराहटों पे न जा
ख़ुदा-गवाह मुझे आज भी तिरा ग़म है
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ज़िंदगी
दिल पे जब दर्द की उफ़्ताद पड़ी होती है
अब न काबा की तमन्ना न किसी बुत की हवस
ये दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ कही जाए
लब-ए-गोया
मैं तो मस्जिद से चला था किसी काबा की तरफ़
क़याम-ए-दैर-ओ-तवाफ़-ए-हरम नहीं करते
वो दास्ताँ जो तिरी दिल-कशी ने छेड़ी थी
तवील रातों की ख़ामुशी में मिरी फ़ुग़ाँ थक के सो गई है
दर्द-ए-मुश्तरक
क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले