कहीं ये अपनी मोहब्बत की इंतिहा तो नहीं
बहुत दिनों से तिरी याद भी नहीं आई
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वो दास्ताँ जो तिरी दिल-कशी ने छेड़ी थी
कोई हसरत भी नहीं कोई तमन्ना भी नहीं
कल और आज
एक उम्र होती है
ग़म-ए-हयात में कोई कमी नहीं आई
क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले
आम है कूचा-ओ-बाज़ार में सरकार की बात
कब तक बोझल पलकों से अश्कों के सितारे टूटेंगे
अब न काबा की तमन्ना न किसी बुत की हवस
दिन गुज़रता है कहाँ रात कहाँ होती है
ये दास्तान-ए-ग़म-ए-दिल कहाँ कही जाए