ज़िंदगी
न मैं मरा हूँ
न तुम मरी हो
मिले थे जब पहली बार
कितने किए थे वादे
खाई कितनी थी हम ने क़स्में
नहीं जिएँगे
जो मिल न पाए
मगर न ज़ेहनों में थीं हमारे
वो मुर्दा रस्में
जो ज़िंदा रखती हैं क़ैद कर के
रिवायतों के अंधे पथरीले महबसों में
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