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दर्द-ए-मुश्तरक - अहमद राही कविता - Darsaal

दर्द-ए-मुश्तरक

मिज़ा-ए-ख़ार पे किस तरह भला पाए क़रार

आरिज़-ए-गुल पे न जब क़तरा-ए-शबनम ठहरे

हादसा है कि दर आई ये मसर्रत की किरन

वर्ना इस दिल पे थे तारीकी-ए-ग़म के पहरे

दर्द-ए-महरूमी-ए-जावेद हमारी क़िस्मत

राहत-ए-वस्ल-ओ-मुलाक़ात के दर बंद रहे

साल-हा-साल रिवायात के ज़िंदानों में

कितने बिफरे हुए जज़्बात नज़र-बंद रहे

सिम-सिम-ए-सीम से खुल जाते हैं उक़दों के पहाड़

जगमगा उठते हैं फूलों के दिए सहरा में

ग़ाज़ा-ए-ज़र से है रुख़्सार-ए-तमद्दुन का निखार

दिल तो इक जिंस-ए-फ़रोमाया है इस दुनिया में

चढ़ते सूरज के परस्तार हैं दुनिया वाले

डूबते चाँद को बिन देखे गुज़र जाते हैं

कौन जूड़े में सजाता है भला धूल के फूल

शाख़ के ख़ार भी आँखों में जगह पाते हैं

तू मिरी है कि यहाँ कोई नहीं था मेरा

मैं तिरा हूँ कि तुझे कोई भी अपना न सका

कितनी प्यारी है सुहानी है ये दुनिया जिस में

तू भी ठुकराई गई मुझ को भी ठुकराया गया

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