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वो बे-नियाज़ मुझे उलझनों में डाल गया - अहमद राही कविता - Darsaal

वो बे-नियाज़ मुझे उलझनों में डाल गया

वो बे-नियाज़ मुझे उलझनों में डाल गया

कि जिस के प्यार में एहसास-ए-माह-ओ-साल गया

हर एक बात के यूँ तो दिए जवाब उस ने

जो ख़ास बात थी हर बार हँस के टाल गया

कई सवाल थे जो मैं ने सोच रक्खे थे

वो आ गया तो मुझे भूल हर सवाल गया

जो उम्र जज़्बों का सैलाब बन के आई थी

गुज़र गई तो लगा दौर-ए-ए'तिदाल गया

वो एक ज़ात जो ख़्वाब-ओ-ख़याल लाई थी

इसी के साथ हर इक ख़्वाब हर ख़याल गया

उसे तो इस का कोई रंज भी न हो शायद

कि उस की बज़्म से कोई शिकस्ता-हाल गया

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