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तन्हाइयों के दश्त में अक्सर मिला मुझे - अहमद राही कविता - Darsaal

तन्हाइयों के दश्त में अक्सर मिला मुझे

तन्हाइयों के दश्त में अक्सर मिला मुझे

वो शख़्स जिस ने कर दिया मुझ से जुदा मुझे

वारफ़्तगी मिरी है कि है इंतिहा-ए-शौक़

उस की गली को ले गया हर रास्ता मुझे

जैसे हो कोई चेहरा नया उस के रू-ब-रू

यूँ देखता रहा मिरा हर आश्ना मुझे

हर्फ़-ए-ग़लत समझ के जो मुझ को मिटा गया

उस जैसा उस के ब'अद न कोई लगा मुझे

पहले ही मुझ पे कम नहीं तेरी इनायतें

दम लेने दे ऐ गर्दिश-ए-दौराँ ज़रा मुझे

मुश्किल मुझे डूबना किनारे पे भी न था

नाहक़ भँवर में लाया मिरा नाख़ुदा मुझे

ये ज़िंदगी कि मौत भी है जिस पे नौहा-ख़्वाँ

किस जुर्म की न जाने मिली है सज़ा मुझे

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