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क़याम-ए-दैर-ओ-तवाफ़-ए-हरम नहीं करते - अहमद राही कविता - Darsaal

क़याम-ए-दैर-ओ-तवाफ़-ए-हरम नहीं करते

क़याम-ए-दैर-ओ-तवाफ़-ए-हरम नहीं करते

ज़माना-साज़ तो करते हैं हम नहीं करते

तुम्हारी ज़ुल्फ़ को सुलझाएँगे वो दीवाने

जो अपने चाक-ए-गरेबाँ का ग़म नहीं करते

उतर चुका है रग-ओ-पै में ज़हर-ए-ग़म फिर भी

ब-पास-अहद-ए-वफ़ा चश्म नम नहीं करते

ये अपना दिल है कि इस हाल में भी ज़िंदा हैं

सितम कुछ अहल-ए-सितम हम पे कम नहीं करते

गिरफ़्ता-दिल हैं बुतान-ए-हरम कि अब शाइर

नशात-ओ-ऐश के सामाँ बहम नहीं करते

सुना रहे हैं जहाँ को हदीस-ए-दार-ओ-रसन

हिकायत-ए-क़द-ओ-गेसू रक़म नहीं करते

वो आस्तान-ए-शही हो कि आस्ताना-ए-दोस्त

ये अब कहीं सर-ए-तस्लीम ख़म नहीं करते

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