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क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले - अहमद राही कविता - Darsaal

क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले

क़द ओ गेसू लब-ओ-रुख़्सार के अफ़्साने चले

आज महफ़िल में तिरे नाम पे पैमाने चले

अभी तू ने दिल-ए-शोरीदा को देखा क्या है

मौज में आए तो तूफ़ानों से टकराने चले

देखें अब रहता है किस किस का गरेबाँ साबित

चाक-ए-दिल ले के तिरी बज़्म से दीवाने चले

फिर किसी जश्न-ए-चराग़ाँ का गुमाँ है शायद

आज हर सम्त से पुर-सोख़्ता परवाने चले

ये मसीहाई भी इक तुर्फ़ा-तमाशा है कि जब

दम उलट जाए तो वो ज़ख़्मों को सहलाने चले

जिस ने उलझाया है कितने ही दिलों को यारो

हम भी उस ज़ुल्फ़-ए-गिरह-गीर को सुलझाने चले

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