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महफ़िल महफ़िल सन्नाटे हैं - अहमद राही कविता - Darsaal

महफ़िल महफ़िल सन्नाटे हैं

महफ़िल महफ़िल सन्नाटे हैं

दर्द की गूँज पे कान धरे हैं

दिल था शोर था हंगामे थे

यारो हम भी तुम जैसे हैं

मौज-ए-हवा में आग भरी है

बहते दरिया खौल उठे हैं

अरमानों के नर्म शगूफ़े

शाख़ों के हम-राह जले हैं

ये जो ढेर हैं ये जो खंडर हैं

माज़ी की गलियाँ-कूचे हैं

जिन को देखना बस में नहीं था

ऐसे भी मंज़र देखे हैं

कौन दिलों पर दस्तक देगा

यादों ने दम साध लिए हैं

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