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जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे - अहमद राही कविता - Darsaal

जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे

जिन्हें रास आ गए हैं ये सहर-नुमा अँधेरे

ये तलाश-ए-सुब्ह-ए-नौ में कभी हम-सफ़र थे मेरे

थीं जो क़त्ल-गाहें उन की हैं वही क़याम-गाहें

थे जो रहज़नों के मस्कन हैं वो रहबरों के डेरे

मैं जहान-ए-बे-दिली में कहाँ ले के जाऊँ दिल को

मिरे दिल की घात में हैं यहाँ चार-सू लुटेरे

ऐ शबों के पासबानों मैं ये तुम से पूछता हूँ

जिन्हें पूजते रहे हो वो कहाँ गए सवेरे

अरे मैं तो बे-नवा हूँ जो कभी न बिक सकेगा

अरे तुम सुनार हो कर यहाँ बन गए कसीरे

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